महात्मा गांधी की जीवनी

 


महात्मा गांधी
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता




जब भी हम अपने देश भारत के इतिहास की बात करते हैं, तो स्वतंत्रता संग्राम की बात जरुर होती हैं और इस स्वतंत्रता संग्राम में किन – किन सैनानियों ने अपना योगदान दिया, उन पर भी अवश्य चर्चाएँ होती हैं. भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में यहाँ पढ़ें. इस स्वतंत्रता संग्राम में दो तरह के सेनानी हुआ करते थे,


 
पहले -: जो अंग्रेजों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों का जवाब उन्हीं की तरह खून – खराबा करके देना चाहते थे, इनमें प्रमुख थे -: चंद्रशेखर आज़ाद, सरदार भगत सिंह, आदि. 

दूसरे तरह के सेनानी थे -: जो इस खूनी मंज़र के बजाय शांति की राह पर चलकर देश को आज़ादी दिलाना चाहते थे, इनमें सबसे प्रमुख नाम हैं-: महात्मा गांधी का. उनके इसी शांति, सत्य और अहिंसा का पालन करने वाले रवैये के कारण लोग उन्हें ‘महात्मा’ संबोधित करने लगे थे. आइये हम इस महात्मा के बारे में और भी जानकारियां साझा करते हैं -:



नाम : मोहनदास करमचंद गांधी
पिता  का नाम : करमचंद गांधी
माता का नाम : पुतलीबाई
जन्म दिनांक : 2 अक्टूबर, 1869
जन्म स्थान : गुजरात के पोरबंदर क्षेत्र में
राष्ट्रीयता : भारतीय
शिक्षा : बैरिस्टर
पत्नि : कस्तूरबाई माखंजी कपाड़िया : [कस्तूरबा गांधी]
संतान 4 पुत्र -: हरिलाल, मणिलाल, रामदास, देवदास
मृत्यु : 30  जनवरी 1948

महात्मा गांधी का प्रारंभिक जीवन  
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महात्मा गांधी का जन्म भारत के गुजरात राज्य के पोरबंदर क्षेत्र में हुआ था. उनके पिता श्री करमचंद गांधी पोरबंदर के ‘दीवान’ थे और माता पुतलीबाई एक धार्मिक महिला थी. गांधीजी के जीवन में उनकी माता का बहुत अधिक प्रभाव रहा. उनका विवाह 13 वर्ष की उम्र में ही हो गया था और उस समय कस्तूरबा 14 वर्ष की थी.

नवंबर, सन 1887 में उन्होंने अपनी मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण [पास] कर ली थी और जनवरी, सन 1888 में उन्होंने भावनगर के सामलदास कॉलेज में दाखिला लिया था और यहाँ से डिग्री प्राप्त की. इसके बाद वे लंदन गये और वहाँ से बेरिस्टर बनकर लौटे.


युवा गांधी जी - 1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे 'मुंबई यूनिवर्सिटी' की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित 'सामलदास कॉलेज' में दाखिल लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेजी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीर-फाड़ की इजाजत नहीं थी। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परंपरा निभानी है तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा और ऐसे में गांधीजी को इंग्लैंड जाना पड़ा। 
 
यूं भी गांधी जी का मन उनके 'सामलदास कॉलेज' में कुछ खास नहीं लग रहा था, इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को सहज ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि 'दार्शनिकों और कवियों की भूमि, संपूर्ण सभ्यता के केन्द्र' के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह लंदन पहुंच गए। वहां पहुंचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार कानून महाविद्यालय में से एक 'इनर टेंपल' में दाखिल हो गए।
 
1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुंचाने के बजाए उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा किए उससे लड़ने की नई तकनीक थी।

महात्मा गांधी की दक्षिण अफ्रीका यात्रा
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सन 1894 में किसी क़ानूनी विवाद के संबंध में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका गये थे और वहाँ होने वाले अन्याय के खिलाफ ‘अवज्ञा आंदोलन' चलाया और इसके पूर्ण होने के बाद भारत लौटे. गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में (1893-1914)

गाँधी 24 साल की उम्र में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वह प्रिटोरिया स्थित कुछ भारतीय व्यापारियों के न्यायिक सलाहकार के तौर पर वहां गए थे। उन्होंने अपने जीवन के 21 साल दक्षिण अफ्रीका में बिताये जहाँ उनके राजनैतिक विचार और नेतृत्व कौशल का विकास हुआ। दक्षिण अफ्रीका में उनको गंभीर नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ा। एक बार ट्रेन में प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के कारण उन्हें ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया। ये सारी घटनाएँ उनके के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ बन गईं और मौजूदा सामाजिक और राजनैतिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए उनके मन में ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत भारतियों के सम्मान तथा स्वयं अपनी पहचान से सम्बंधित प्रश्न उठने लगे।

दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी ने भारतियों को अपने राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भारतियों की नागरिकता सम्बंधित मुद्दे को भी दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के सामने उठाया और सन 1906 के ज़ुलु युद्ध में भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। गाँधी के अनुसार अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए।



विदेश में शिक्षा और वकालत

मोहनदास अपने परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे इसलिए उनके परिवार वाले ऐसा मानते थे कि वह अपने पिता और चाचा का उत्तराधिकारी (दीवान) बन सकते थे। उनके एक परिवारक मित्र मावजी दवे ने ऐसी सलाह दी कि एक बार मोहनदास लन्दन से बैरिस्टर बन जाएँ तो उनको आसानी से दीवान की पदवी मिल सकती थी। उनकी माता पुतलीबाई और परिवार के अन्य सदस्यों ने उनके विदेश जाने के विचार का विरोध किया पर मोहनदास के आस्वासन पर राज़ी हो गए। वर्ष 1888 में मोहनदास यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। अपने माँ को दिए गए वचन के अनुसार ही उन्होंने लन्दन में अपना वक़्त गुजारा। वहां उन्हें शाकाहारी खाने से सम्बंधित बहुत कठिनाई हुई और शुरूआती दिनो में कई बार भूखे ही रहना पड़ता था। धीरे-धीरे उन्होंने शाकाहारी भोजन वाले रेस्टोरेंट्स के बारे में पता लगा लिया। इसके बाद उन्होंने ‘वेजीटेरियन सोसाइटी’ की सदस्यता भी ग्रहण कर ली। इस सोसाइटी के कुछ सदस्य थियोसोफिकल सोसाइटी के सदस्य भी थे और उन्होंने मोहनदास को गीता पढने का सुझाव दिया।

राजनैतीक जीवन 

        गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि १९१८ में चम्पारन  और खेड़ा सत्याग्रह, आंदोलन में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील  नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर  और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। 

        यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा, गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व प्रेरित किया।

गांधी जी की शिक्षा-दीक्षा

गांधी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पोरबंदर में हुई थी। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की, इसके बाद इनके पिता का राजकोट ट्रांसफर हो जाने की वजह से उन्होंने राजकोट से अपनी बची हुई शिक्षा पूरी की। साल 1887 में राजकोट हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिये भावनगर के सामलदास कॉलेज में प्रवेश प्राप्त किया, लेकिन घर से दूर रहने के कारण वह अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाएं और अस्वस्थ होकर पोरबंदर वापस लौट गए। 4 सितम्बर 1888 को इंग्लैण्ड के लिये रवाना हुए। गांधीजी ने लंदन में लंदन वेजीटेरियन सोसायटी की सदस्यता ग्रहण की और इसके कार्यकारी सदस्य बन गये। गांधी जी लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी के सम्मेलनों में भाग लेने लगे और पत्रिका में लेख लिखने लगे। यहां 3 सालों (1888-1891) तक रहकर अपनी बैरिस्टरी की पढ़ाई पूरी की और सन् 1891 में वापस भारत आ गए।


गांधी जी का वैवाहिक जीवन

गांधी जी का विवाह सन् 1883 में मात्र 13 वर्ष की आयु में कस्तूरबा जी से हुआ था। लोग उन्हें प्यार से ‘बा’ कहकर पुकारते थे। कस्तूरबा गांधी जी के पिता एक धनी व्यवसायी थे । शादी से पहले तक कस्तूरबा पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं। गांधी जी ने उन्हें लिखना- पढ़ना सिखाया। एक आदर्श पत्नी की तरह बा ने गांधी जी का हर एक काम में साथ दिया। साल 1885 में गांधी जी की पहली संतान ने जन्म लिया, लेकिन कुछ समय बाद ही निधन हो गया था।


महात्मा गांधी का भारत आगमन और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना 
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सन 1916 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटे और फिर हमारे देश की आज़ादी के लिए अपने कदम उठाना शुरू किया. सन 1920 में कांग्रेस लीडर बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद गांधीजी ही कांग्रेस के मार्गदर्शक थे.  

सन 1914 – 1919 के बीच जो प्रथम विश्व युध्द हुआ था, उसमें गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार को इस शर्त पर पूर्ण सहयोग दिया, कि इसके बाद वे भारत को आज़ाद कर देंगे. परन्तु जब अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया, तो फिर गांधीजी ने देश को आज़ादी दिलाने के लिए बहुत से आंदोलन चलाये. इनमें से कुछ आंदोलन निम्नानुसार हैं -:

सन 1920 में -: असहयोग आंदोलन 

असहयोग आन्दोलन को अपार सफलता मिल रही थी जिससे समाज के सभी वर्गों में जोश और भागीदारी बढ गई लेकिन फरवरी 1922 में इसका अंत चौरी-चौरा कांड के साथ हो गया। इस हिंसक घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। उन्हें गिरफ्तार कर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाई गयी। ख़राब स्वास्थ्य के चलते उन्हें फरवरी 1924 में सरकार ने रिहा कर दिया।

असहयोग आन्दोलन

गाँधी जी का मानना था की भारत में अंग्रेजी हुकुमत भारतियों के सहयोग से ही संभव हो पाई थी और अगर हम सब मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ हर बात पर असहयोग करें तो आजादी संभव है। गाँधी जी की बढती लोकप्रियता ने उन्हें कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता बना दिया था और अब वह इस स्थिति में थे कि अंग्रेजों के विरुद्ध असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार जैसे अस्त्रों का प्रयोग कर सकें। इसी बीच जलियावांला नरसंहार ने देश को भारी आघात पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी थी।

गांधी जी ने स्वदेशी नीति का आह्वान किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। उनका कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। उन्होंने पुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन सूत कातने के लिए कहा। इसके अलावा महात्मा गाँधी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं और अदालतों का बहिष्कार, सरकारी नौकरियों को छोड़ने तथा अंग्रेजी सरकार से मिले तमगों और सम्मान को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।

सन 1930 में -: अवज्ञा आंदोलन

हरिजन आंदोलन

दलित नेता बी आर अम्बेडकर की कोशिशों के परिणामस्वरूप अँगरेज़ सरकार ने अछूतों के लिए एक नए संविधान के अंतर्गत पृथक निर्वाचन मंजूर कर दिया था। येरवडा जेल में बंद गांधीजी ने इसके विरोध में सितंबर 1932 में छ: दिन का उपवास किया और सरकार को एक समान व्यवस्था (पूना पैक्ट) अपनाने पर मजबूर किया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए अभियान की यह शुरूआत थी। 8 मई 1933 को गांधी जी ने आत्म-शुद्धि के लिए 21 दिन का उपवास किया और हरिजन आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए एक-वर्षीय अभियान की शुरुआत की। अमबेडकर जैसे दलित नेता इस आन्दोलन से प्रसन्न नहीं थे और गांधी जी द्वारा दलितों के लिए हरिजन शब्द का उपयोग करने की निंदा की।
सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन 
वैसे तो गांधीजी का संपूर्ण जीवन ही एक आंदोलन की तरह रहा. परन्तु उनके द्वारा मुख्य रूप से 5 आंदोलन चलाये गये, जिनमें से 3 आंदोलन संपूर्ण राष्ट्र में चलाये गए और बहुत सफल हुए और इसलिए लोग इनके बारे में जानकारी भी रखते हैं. गांधीजी द्वारा चलाये गये इन सभी आन्दोलनों को हम निम्न प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं -:

प्रमुख आंदोलन अन्य आंदोलन / प्रारंभिक चरण के आंदोलन
सन 1920 में -: असहयोग आंदोलन
सन 1930 में -: अवज्ञा आंदोलन / नमक सत्याग्रह आंदोलन / दांडी यात्रा 
सन 1942 में -: भारत छोड़ो आंदोलन 
सन 1918 में -: चंपारन और खेड़ा सत्याग्रह,
सन 1919 में -: खिलाफत आंदोलन 

खिलाफत आन्दोलन

कांग्रेस के अन्दर और मुस्लिमों के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का मौका गाँधी जी को खिलाफत आन्दोलन के जरिये मिला। खिलाफत एक विश्वव्यापी आन्दोलन था जिसके द्वारा खलीफा के गिरते प्रभुत्व का विरोध सारी दुनिया के मुसलमानों द्वारा किया जा रहा था। प्रथम विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद ओटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया था जिसके कारण मुसलमानों को अपने धर्म और धार्मिक स्थलों के सुरक्षा को लेकर चिंता बनी हुई थी। भारत में खिलाफत का नेतृत्व ‘आल इंडिया मुस्लिम कांफ्रेंस’ द्वारा किया जा रहा था। धीरे-धीरे गाँधी इसके मुख्य प्रवक्ता बन गए। भारतीय मुसलमानों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दिए सम्मान और मैडल वापस कर दिया। इसके बाद गाँधी न सिर्फ कांग्रेस बल्कि देश के एकमात्र ऐसे नेता बन गए जिसका प्रभाव विभिन्न समुदायों के लोगों पर था।

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इन सभी आंदोलनों का वर्षानुसार  वर्णन निम्न प्रकार से दिया जा रहा हैं -:

सन 1918 में : चंपारन और खेड़ा सत्याग्रह -:
गांधीजी द्वारा सन 1918 में चलाया गया ‘चंपारन और खेड़ा सत्याग्रह’ भारत में उनके आंदोलनों की शुरुआत थी और इसमें वे सफल रहे. ये सत्याग्रह ब्रिटिश लैंडलॉर्ड के खिलाफ चलाया गया था. इन ब्रिटिश लैंडलॉर्ड द्वारा भारतीय किसानों को नील  की पैदावार करने के लिए जोर डाला जा रहा था और इसी के साथ हद तो यह थी कि उन्हें यह नील एक निश्चित कीमत पर ही बेचने के लिए भी विवश किया जा रहा था और भारतीय किसान ऐसा नहीं चाहते थे. तब उन्होंने महात्मा गांधी की मदद ली. इस पर गांधीजी ने एक अहिंसात्मक आंदोलन चलाया और इसमें सफल रहे और अंग्रेजों को उनकी बात मानना पड़ी.

इसी वर्ष खेड़ा नामक एक गाँव, जो गुजरात प्रान्त में स्थित हैं, वहाँ बाढ़ आ गयी और वहाँ के किसान ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये जाने वाले टैक्स भरने में असक्षम हो गये. तब उन्होंने इसके लिए गांधीजी से सहायता ली और तब गांधीजी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ नामक हथियार का प्रयोग किया और किसानों को टैक्स में छूट दिलाने के लिए आंदोलन किया. इस आंदोलन में गांधीजी को जनता से बहुत समर्थन मिला और आखिरकार मई, 1918 में ब्रिटिश सरकार को अपने टैक्स संबंधी नियमों में किसानों को राहत देने की घोषणा करनी पड़ी.

सन 1919 में : खिलाफत आंदोलन
सन 1919 में गांधीजी को इस बात का एहसास होने लगा था कि कांग्रेस कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ रही हैं तो उन्होंने कांग्रेस की डूबती नैया को बचाने के लिए और साथ ही साथ हिन्दू – मुस्लिम एकता के द्वारा ब्रिटिश सरकार को बाहर निकालने के लिए अपने प्रयास शुरू किये. इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे मुस्लिम समाज के पास गये. खिलाफत आंदोलन वैश्विक स्तर पर चलाया गया आंदोलन था, जो मुस्लिमों के कालिफ के खिलाफ चलाया गया था. महात्मा गांधी ने संपूर्ण राष्ट्र के मुस्लिमों की कांफ्रेंस रखी और वे स्वयं इस कांफ्रेंस के प्रमुख व्यक्ति भी थे. इस आंदोलन ने मुस्लिमों को बहुत सपोर्ट किया और गांधीजी के इस प्रयास ने उन्हें राष्ट्रीय नेता [नेशनल लीडर] बना दिया और कांग्रेस में उनकी खास जगह भी बन गयी. परन्तु सन 1922 में खिलाफत आंदोलन बुरी तरह से बंद हो गया और इसके बाद गांधीजी अपने संपूर्ण जीवन ‘हिन्दू मुस्लिम एकता’ के लिए लड़ते रहे, परन्तु हिन्दू और मुस्लिमों के बीच दूरियां बढ़ती ही गयी.


सन 1920 में -: असहयोग आंदोलन 
विभिन्न आंदोलनों से निपटने के लिए अंग्रेजी सरकार ने सन 1919 में रोलेट एक्ट पारित किया. इसी दौरान गांधीजी द्वारा कुछ सभाएं भी आयोजित की गयी और उन्हीं सभाओं की तरह ही अन्य स्थानों पर भी सभाओं का आयोजन किया गया. इसी प्रकार की एक सभा पंजाब के अमृतसर क्षेत्र में जलियांवाला बाग में बुलाई गयी थी और वहाँ इस शांति सभा को अंगेजों ने जिस बेरहमी के साथ रौंदा था, उसके विरोध में गांधीजी ने सन 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया. इस असहयोग आंदोलन का अर्थ ये था कि भारतीयों द्वारा अंग्रेजी सरकार की किसी भी प्रकार से सहायता ना की जाये. परन्तु इसमें किसी भी तरह की हिंसा नहीं हो.


यह आंदोलन सितम्बर, 1920 से शुरू हुआ और फेब्रुअरी, 1922 तक चला था. गांधीजी द्वारा चलाये गये 3 प्रमुख आंदोलनों में से यह पहला आंदोलन था. इस आंदोलन को शुरू करने के पीछे महात्मा गांधी की ये सोच थी कि भारत में ब्रिटिश सरकार केवल इसीलिए राज कर पा रही है, क्योंकि उन्हें भारतीय लोगों द्वारा ही सपोर्ट किया जा रहा हैं, तो अगर उन्हें ये सपोर्ट मिलना ही बंद हो जाये, तो ब्रिटिश सरकार के लिए भारतीयों पर राज कर पाना मुश्किल होगा, इसलिए गांधीजी ने लोगों से अपील की कि वे ब्रिटिश सरकार के किसी भी काम में सहयोग न करें, परन्तु इसमें किसी भी प्रकार की हिंसात्मक गतिविधि शामिल न हो. लोगों को गांधीजी की बात समझ में आयी और सही भी लगे. लोग बहुत बड़ी मात्रा में, बल्कि राष्ट्रव्यापी [Nationwide] स्तर पर आंदोलन से जुड़ें और ब्रिटिश सरकार को सहयोग करना बंद कर दिया. इसके लिए लोगों ने अपनी सरकारी नौकरियां, फेक्ट्री, कार्यालय, आदि छोड़ दिए. लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों और कॉलेजों से निकाल लिया. अर्थात् हर वो प्रयास किया, जिससे अंग्रेजों को किसी भी प्रकार की सहायता ना मिले. परन्तु इस कारण बहुत से लोग गरीबी और अनपढ़ होने जैसी स्थिति में पहुँच गये थे, परन्तु फिर भी लोग ये सब अपने देश की आज़ादी के लिए सहते रहे. उस समय कुछ ऐसा माहौल हो गया था कि शायद हमें तभी आज़ादी मिल जाती. परन्तु आंदोलन की चरम स्थिति पर गांधीजी ने ‘चौरा – चौरी’ नामक स्थान पर हुई घटना के कारण इस आंदोलन को समाप्त करने का निर्णय ले लिया.

 
चौरा – चौरी कांड 
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चूँकि ये असहयोग आंदोलन संपूर्ण देश में अहिंसात्मक तरीके से चलाया जा रहा था, तो इस दौरान उत्तर प्रदेश राज्य के चौरा चौरी नामक स्थान पर जब कुछ लोग शांतिपूर्ण तरीके से रैली निकाल रहे थे, तब अंग्रेजी सैनिकों ने उन पर गोलियां चला दी और कुछ लोगों की इसमें मौत भी हो गयी. तब इस गुस्से से भरी भीड़ ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी और वहाँ उपस्थित 22 सैनिकों की भी हत्या कर दी. तब गांधीजी का कहना था कि “हमें संपूर्ण आंदोलन के दौरान किसी भी हिंसात्मक गतिविधि को नहीं करना था, शायद हम अभी आज़ादी पाने के लायक नहीं हुए हैं” और इस हिंसात्मक गतिविधि के कारण उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया.

सन 1930 में : सविनय अवज्ञा आंदोलन / नमक सत्याग्रह आंदोलन / दांडी यात्रा 
सन 1930 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ़ एक ओर आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन का नाम था -: सविनय अवज्ञा आंदोलन  इस आंदोलन का उद्देश्य यह था कि ब्रिटिश सरकार द्वारा जो भी नियम कानून बनाये जाये, उन्हें नहीं मानना और उनकी अवहेलना करना. जैसे -: ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाया था कि कोई भी नमक नहीं बनाएगा, तो 12 मार्च, सन 1930 को उन्होंने इस कानून को तोड़ने के लिए अपनी ‘दांडी यात्रा’ शुरू की. वे दांडी नामक स्थान पर पहुंचे और वहाँ जाकर नमक बनाया था और इस प्रकार यह आंदोलन भी शांतिपूर्ण ढंग से ही चलाया गया. इस दौरान कई लीडर और नेता ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार किये गये थे.



गांधीजी द्वारा नमक सत्याग्रह की शुरुआत 12 मार्च, सन 1930 को गुजरात के अहमदाबाद शहर के पास स्थित साबरमती आश्रम से की गयी और यह यात्रा 5 अप्रैल, सन 1930 तक गुजरात में ही स्थित दांडी नामक स्थान तक चली. यहाँ पहुंचकर गांधीजी ने नमक बनाया और यह कानून तोडा और इस प्रकार राष्ट्रव्यापी  अवज्ञा आंदोलन  की शुरुआत हुई. यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण चरण था. यह ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक बनाये जाने के एकाधिकार पर सीधा प्रहार था और इसी घटना के बाद यह आंदोलन संपूर्ण देश में फ़ैल गया था. इसी समय अर्थात् 26 जनवरी, सन 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ की भी घोषणा कर दी थी. महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा 24 दिनों में पूरी की और इस दौरान उन्होंने साबरमती से दांडी तक लगभग 240 मील [390 कि. मी.] की दूरी तय की थी. यहाँ उन्होंने बिना किसी टैक्स का भुगतान किये नमक बनाया. इस यात्रा की शुरुआत में उनके साथ 78 स्वयंसेवक थे और यात्रा के अंत तक यह संख्या हजारों हो गयी थी. यहाँ वे 5 अप्रैल, सन 1930 को पहुंचे और यहाँ पहुंचकर उन्होंने इसी दिन सुबह 6.30 बजे उन्होंने नमक बनाकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की और इसे भी हजारों भारतीयों ने मिलकर सफल बनाया.


यहाँ नमक बनाकर महात्मा गांधी ने अपनी यात्रा जारी रखी और यहाँ से वे दक्षिण की ओर के समुद्र तटों की ओर बढ़े. इसके पीछे उनका उद्देश्य इन समुद्री तटों पर नमक बनाना तो था ही, साथ ही साथ वे कई सभाओं को संबोधित करने का भी कार्य कर रहे थे. यहाँ उन्होंने धरसाना  नामक स्थान पर भी ये कानून तोड़ा था. 4 – 5 मई, सन 1930 अर्द्धरात्रि [midnight] को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी गिरफ्तारी और इस सत्याग्रह ने पूरे विश्व का ध्यान भारत के स्वतंत्रता संग्राम की ओर खींचा. ये सत्याग्रह पूरे वर्ष चला और गांधीजी की जेल से रिहाई के साथ ही ख़त, हुआ और वो भी इसीलिए क्योंकि द्वितीय गोल मेज सम्मेलन के समय वायसराय लार्ड इर्विन नेगोसिएशन के लिए राजी हो गये थे. इस नमक सत्याग्रह के कारण लगभग 80,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया था.

गांधीजी द्वारा चलाया गया यह नमक सत्याग्रह उनके ‘अहिंसात्मक विरोध ‘ के सिद्धांत पर आधारित था. इसका शाब्दिक अर्थ हैं – सत्य का आग्रह : सत्याग्रह. कांग्रेस ने भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए सत्याग्रह को अपना हथियार बनाया और इसके लिए गांधीजी को प्रमुख नियुक्त किया. इसी के तहत धरसाना में जो सत्याग्रह हुआ था, उसमें अंग्रेजी सैनिकों ने हजारों लोगों को मार दिया था, परन्तु अंततः इसमें गांधीजी की सत्याग्रह नीति कारगर सिद्ध हुई और अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा. इस सत्याग्रह का अमेरिकन एक्टिविस्ट मार्टिन लूथर, जेम्स बेवल, आदि पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा, जो सन 1960 के समय में रंग – भेद नीति [काले और गोरे लोगों में भेदभाव] और अल्पसंख्यकों [माइनॉरिटी] के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे. जिस तरह ये सत्याग्रह और अवज्ञा आंदोलन फ़ैल रहा था, तो इसे सही मार्गदर्शन के लिए मद्रास में राजगोपालाचारी और उत्तर भारत में खान अब्दुल गफ्फार खान को इसकी बागडोर सौपी गयी.

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सन 1942 में : भारत छोड़ो आंदोलन 
1940 के दशक [Decade] तक आते – आते भारत की आज़ादी के लिए देश के बच्चे, बूढ़े और जवान सभी में जोश और गुस्सा भरा पड़ा था. तब गांधीजी ने इसका सही दिशा में उपयोग किया और बहुत ही बड़े पैमाने पर सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन  की शुरुआत की. यह आंदोलन अब तक के सभी आंदोलनों में सबसे अधिक प्रभावी रहा. यह अंग्रेजी सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी.


सन 1942 में महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया तीसरा बड़ा आंदोलन था -: भारत छोड़ो आंदोलन. इसकी शुरुआत महात्मा गांधी ने अगस्त, सन 1942 में की गयी थी. परन्तु इसके संचालन में हुई गलतियों के कारण यह आंदोलन जल्दी ही धराशायी हो गया अर्थात यह आंदोलन सफल नहीं हो सका था. इसके असफल होने के पीछे कई कारण थे, जैसे -: इस आंदोलन में विद्यार्थी, किसान, आदि सभी के द्वारा हिस्सा लिया जा रहा था और उनमें इस आंदोलन को लेकर बड़ी लहर थी और आंदोलन संपूर्ण देश में एक साथ शुरू नहीं हुआ अर्थात् आंदोलन की शुरुआत अलग – अलग तिथियों पर होने से इसका प्रभाव कम हो गया, इसके अलावा बहुत से भारतीयों को ऐसा भी लग रहा था कि यह स्वतंत्रता संग्राम का चरम हैं और अब हमें आज़ादी मिल ही जाएगी और उनकी इस सोच ने आंदोलन को कमजोर कर दिया. परन्तु इस आंदोलन से एक बात ये अच्छी हुई कि इससे ब्रिटिश शासकों को यह एहसास हो गया था, कि अब भारत में उनका शासन नहीं चल सकता, उन्हें आज नहीं तो कल भारत छोड़ कर जाना होगा.

इस तरह गांधीजी द्वारा उनके जीवनकाल में चलाये गये सभी आंदोलनों ने हमारे देश की आज़ादी के लिए अपना सहयोग दिया और अपना बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा.

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आंदोलनों की विशेषता 
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महात्मा गांधी ने जितने भी आंदोलन किये, उन सभी में कुछ बातें एक समान थी, जिनका विवरण निम्नानुसार हैं -:

ये आंदोलन हमेशा शांतिपूर्ण ढंग से चलाये जाते थे.
आंदोलन के दौरान किसी भी प्रकार की हिंसात्मक गतिविधि होने पर गांधीजी द्वारा वह आंदोलन रद्द कर दिया जाता था. यह भी एक कारण था कि हमें आज़ादी कुछ देर से मिली.
आंदोलन हमेशा सत्य और अहिंसा की नींव पर किये जाते थे.
महात्मा गांधी का सामाजिक जीवन 
गांधीजी एक महान लीडर तो थे ही, परन्तु अपने सामाजिक जीवन में भी वे ‘सादा जीवन उच्च विचार ’ को मानने वाले व्यक्तियों में से एक थे. उनके इसी स्वभाव के कारण उन्हें लोग ‘महात्मा’ कहकर संबोधित करने लगे थे. गांधीजी प्रजातंत्र के बड़े भारी समर्थक थे. उनके 2 हथियार थे -: ‘सत्य और अहिंसा ’. इन्हीं हथियारों के बल पर उन्होंने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराया. गांधीजी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि उनसे मिलने पर हर कोई उनसे बहुत प्रभावित [इन्फ्लुएंस] हो जाता था.

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छुआछूत को दूर करना 

गांधीजी ने समाज में फैली छुआछूत की भावना को दूर करने के लिए बहुत प्रयास किये. उन्होंने पिछड़ी जातियों को ईश्वर के नाम पर ‘हरि – जन’ नाम दिया और जीवन पर्यन्त उनके उत्थान के लिए प्रयासरत रहें.

महात्मा गांधी की मृत्यु 

30 जनवरी सन 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर महात्मा गांधी की हत्या कर दी गयी थी. उन्हें 3 गोलियां मारी गयी थी और उनके मुँह से निकले अंतिम शब्द थे -: ‘हे राम’. उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली में राज घाट पर उनका समाधी स्थल बनाया गया हैं.


राष्ट्रपिता का ख़िताब  महात्मा गांधी को भारत के राष्ट्रपिता का ख़िताब भारत सरकार ने नहीं दिया, अपितु एक बार सुभाषचंद्र बोस ने उन्हें राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था. 
गांधीजी की मृत्यु पर एक अंग्रेजी ऑफिसर ने कहा था कि “जिस गांधी को हमने इतने वर्षों तक कुछ नहीं होने दिया, ताकि भारत में हमारे खिलाफ जो माहौल हैं, वो और न बिगड़ जाये, उस गांधी को स्वतंत्र भारत एक वर्ष भी जीवित नहीं रख सका.”
गांधीजी ने स्वदेशी आंदोलन भी चलाया था, जिसमें उन्होंने सभी लोगो से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की मांग की और फिर स्वदेशी कपड़ों आदि के लिए स्वयं चरखा चलाया और कपड़ा भी बनाया.
गांधीजी ने देश – विदेश में कुछ आश्रमों की भी स्थापना की, जिनमें टॉलस्टॉय आश्रम और भारत का साबरमती आश्रम बहुत प्रसिद्द हुआ.
गांधीजी आत्मिक शुद्धि के लिए बड़े ही कठिन उपवास भी किया करते थे.
गांधीजी ने जीवन पर्यन्त हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किया.
2 अक्टूबर को गांधी जी जन्मदिवस पर समस्त भारत में गांधी जयंती मनाई जाती है.
इस प्रकार गांधीजी बहुत ही महान व्यक्ति थे. गांधीजी ने अपने जीवन में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये, उनकी ताकत ‘सत्य और अहिंसा’ थी और आज भी हम उनके सिद्धांतों को अपनाकर समाज में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते हैं.

आश्चर्य की बात है, शांति के “नोबल पुरस्कार” के लिए पांच बार नॉमिनेट होने के बाद भी आज तक गाँधी जी को यह नहीं मिला। सब को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले प्रिय बापू अब हमारे बीच नहीं हैं पर उनके सिद्धान्त सदैव हमारा मार्ग दर्शन करते रहेंगे।

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